कुसुमाग्रजांची कविता "कणा", हिंदी भावांतराचा एक प्रयत्न
कुसमग्रजांची "कणा" हिंदीत भावांतरित करायचा एक प्रयत्न केलाय, कसा वाटतो नक्की सांगा
पहचाने क्या गुरूजी हमको?’
भिगत आये कोय,
कपडे उसके कसमसायें,
बालों में था तोय.
एक क्षण बैठा फिर वो हँसता
बोलत ऊपर देख,
‘गंगामैय्या आवत घरपे,
अतिथी बने रहैक’.
मैहर उसका पाते ही वो
चहार दिवार में नाची,
खाली हात जाती कैसे,
गृहलक्ष्मी बस बची.
दीवार टूटी, चूल्हा बुझा,
ले गई चल अचल,
प्रसादरूप अब तो है बस
नैनन में थोडा जल.
गृहलक्ष्मी को लेकर संग
सर अब हम लढे है
टूटी दिवार बांध रहे है,
कीचड़ मिट्टी फांद रहे है.
जेब में हात जाते देख
हसतां हुआ सीधा खड़ा