Submitted by मी कल्याणी on 21 February, 2014 - 22:37
मन घुंघुर घुंघुर
लडिवाळ त्याचा नाद|
सवे दारी-अंगणात
पारिजात पारिजात|
मन खळखळ लाट
मन शंखले-शिंपले|
ओंजळीत साठवले
नभ सूर्य चंद्र तारे|
मन मोगर्याचे फूल
मन कस्तुरी दरवळ|
पहाटेच्या नीरवात
मन काकड्याचा स्वर|
मन माथी मोरपीस
मन सुरेल बासरी|
उभ्या 'सावळ्या'च्या संगे
मन चैतन्याच्या सरी|
मन समईची वात
त्यात 'मी'पण जळावे|
मन सोने उजळता
मन 'सावळे'ची व्हावे|
लय जुळता सख्याची
मन होई निराकार|
मागे उरे माझे मन
त्यात 'सावळा' साकार||
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सुरेख! अप्रतिम कविता
सुरेख! अप्रतिम कविता कल्याणी!
एकुण एक कडवं सुंदर!
धन्यवाद आर्या!!!
धन्यवाद आर्या!!!
ओ हो, किती सुंदर लिहिलंय !!
ओ हो, किती सुंदर लिहिलंय !!