Submitted by पुरंदरे शशांक on 13 April, 2020 - 02:37
देह पिंजरा
देह पिंजरा विचित्र
गुदमरे जीवमात्र
सुख लाभता अल्पसे
जाळी वाटते सुसूत्र
देह पिंजरा नाजूक
मन अदृष्यसे धागे
बांधी पिंजर्याची वीण
घट्ट तलम कशिदे
पिंजर्यास सांभाळिती
निगुतीने पुरेपूर
कचकडे बाहुले ते
क्षणामाजी चक्काचूर
बदलले पिंजरे का
जीवपक्षी गुंते त्यात
ज्ञानी सांगती सतत
जाणूनिया नाही घेत
कळे पिंजरा जेव्हा तो
मुक्त पक्षी भरारत
पिंजरा तो दिसेचिना
अडकलो कधी त्यात !
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सुसूत्र.... सुयोग्य, व्यवस्थित, नेटकी
निगुतीने...काटेकोरपणे, काटेकाळजीने
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जयाचा उदय । होता सुप्रभाती । आत्मज्ञान दृष्टी । लाभोनिया ।।
जीवरुपपक्षी । देह अभिमान । घरटी सांडोन । दूर जाती ।। अभंग ज्ञाने. अ. १६ ।।
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