Chinnu
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| Monday, December 05, 2005 - 3:49 pm: |
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वाहव्वा, निनावी अतीशय सहज सुंदर कविता. छान जुळले यमक! आणि बापु, तुमची comment चपखल बसते माणसन्नापण आणि कवितेला सुद्धा!
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Ninavi
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| Monday, December 05, 2005 - 4:16 pm: |
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धन्यवाद, दोस्त्स... .... .... 
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Jo_s
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| Tuesday, December 06, 2005 - 12:59 am: |
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निनावी छानच, बापू तुमची कॉमेंट योग्यच आहे. नाहीतर तो असंबध्द लिखाणाचा संच होईल. काही काही नव कवीता तश्याच वाटतात.
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निनावि लिहिणारयाचा अन वाचणारयान्चा सुन्दर यमक जुळविणारी कविता ... ही इथे का टाकली कळेल का
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गेम जारे घेवुन सूनबाईला दाखव की एक छान सिनेमा लोळत पडलायस घोड्या! नवीन लग्न झालंय ना ? मामंजीनी घेता बाजू सूनबाई सॉलिड हरखली वेणी पावडर कुन्कू करुनी तयार होवुन बसली दुपारच्या त्या उन्हात मग आमची वरात निघाली नवीन जोडी पहावयाला बिल्डिन्ग खिडकीत आली थेटरवरती ही गर्दी, ब्लॅक मध्ये तिकिटान्ची खरेदी शीट पकडुनी बसलो आणि सुरु जाहला " बेदर्दी " " हे भगवान " " मर जाऊंगी " असले डायलॉग भरलेले रडतंच बसलं आमचं येडं तीन तास सरलेले घरी पोहोचता वडील आमचे असे विचारते झाले काय म्हणूनी चेहरा बारीक नक्की काय जाहले राग काढला सगळा आणि मी वडीलांस म्हणालो केवळ तुमच्यापायी तीन तास वाया घालवुनी आलो डोळा बारीक करुनी आमचे पिताश्री आम्हास वदले " असा कसा रे अडाणीच तू जरी लग्न तुझे झाले " लहान " घरातील लोकानी असेच असते वागायचे " एका जोडीला एकांत देण्या दुसरीने सिनेमाला जायचे वैभव!!!
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Moodi
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| Wednesday, December 07, 2005 - 6:36 am: |
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वैभव!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!! कविता अन झुळुकमध्ये तर तू बादशहा अन आता इथे तर एकावर एक कळस चढवलेस की. वा, अप्रतिम....
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Gandhar
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| Wednesday, December 07, 2005 - 7:31 am: |
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वैभव अफलातून रे सही.. !!!!
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Milindaa
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| Wednesday, December 07, 2005 - 12:30 pm: |
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अगदीच काहीच्या काही आहे कविता
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Manee
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| Wednesday, December 07, 2005 - 12:50 pm: |
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वैभवा.. .. सही आहे
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Vinaydesai
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| Wednesday, December 07, 2005 - 2:02 pm: |
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वैभव .. मस्तच ... मजा आली
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Pama
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| Wednesday, December 07, 2005 - 2:17 pm: |
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वैभव.. सहीच रे!! जबरदस्त!! 
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Paragkan
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| Wednesday, December 07, 2005 - 4:55 pm: |
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हाहाहा .... मुंबईचा जावई का? 
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KI..KI..KI vaOBavaaÊmajaa Aa gayaa
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Sarang23
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| Wednesday, December 07, 2005 - 10:48 pm: |
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हा हा हा... सही आहे...
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Giriraj
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| Thursday, December 08, 2005 - 1:09 am: |
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वा रे! काय काय लिहितोस रे बाबा!
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वैभव तुझे नाव बदलायचा मोह होतोय, मला वाटते काव्यवैभव नाव जास्त समर्पक आहे.
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Devdattag
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| Thursday, December 08, 2005 - 3:38 am: |
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वैभव म्हणजे एक AI असलेल मशिन आहे.. काव्य प्रतिभा सम्पन्न
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वैभव!
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Raahul80
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| Thursday, December 08, 2005 - 10:52 am: |
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वैभव एक पुस्तक छापुन टाक आता.
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Athak
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| Thursday, December 08, 2005 - 12:21 pm: |
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वैभव , मान गये उस्ताद आपको
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दोन चारोळ्या (१) वाटा तुडवत चाललो, थाम्बलोच नव्हतो धुके दाटले मागच्या वाटा केव्हाच बुडाल्या पुढेही अन्धार, चाचपडत ठेचाळणारा ध्यानी आले, किती ओझी वागवतोय, आपण. (२) थन्डगार, निर्दय, झोम्बत्या वार्यासन्गती पानगळीचे असहाय ढीग खालीवर होताना पाहून,जन्मदाते झाड गलबलले असेल का? छे, तो तर इतिहास, आता प्रतीक्षा वसन्ताची. बापू करन्दिकर
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Warda
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| Thursday, December 08, 2005 - 11:16 pm: |
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tu nakÜca Aahosa trI mana ]gaaca jaLtM rhatM kaya kaya inasaTuna gaolaya prt prt phat rhatM tu durca Aahosa trIhI mana ]gaaca CLt rhatM ksaa idsat AsaXaIla tu maaga maaga vaLt rhat
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Amitpen
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| Friday, December 09, 2005 - 12:16 am: |
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वैभवा तुला सलाम!!...एका दिवसात नॉर्मली किती कविता लिहितो रे तू?... वरदा, तुझी कविता एकदम पर्सनल वाटली....मस्तय
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Milya
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| Friday, December 09, 2005 - 12:59 am: |
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वैभव .. ... .... 
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बापरे ... गेम सगळ्यांवर पडली की काय ... सर्वांचे मनःपुर्वक धन्यवाद
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केबीसी-अद्वितिय!!! चिरंजीव म्हणाले " चलो अद्भुत खेल खेलत है! " बसलो खुर्चीत म्हटलं " चलो हम क्या डरते हैं? " " ओहो आपकी श्रीमतीजी भी आयी हैं? नमश्कार " बायको पुटपुटली " बापावर गेलाय कारटा! कामापेक्षा नाटकंच फ़ार " सोपे सोपे म्हणता अवघड आला क्वश्चन " लग्नाआधी किती मैत्रिणी ? भरगच्च चार ऑप्शन काय बोलु मी किती कितीदा पाय झालेला स्लिप श्रीमतीजींची नजर टाळुनी क्वश्चन केला फ़्लिप सुटका कुठली पुढचा देखील प्रश्न तो डेन्जर होता " स्टीलच्या ग्लासात लपवुनी डॅडी, तुम्ही काय ढोसता ? " फ़िफ़्टी फ़िफ़्टी करुन शेवटी उरले ऑप्शन साधे लिंबू सरबत दिले सोडुनी ... निवडले पाणी ताजे पुढचा मात्र बंपर होता " मम्मी आवडते का ?" फ़ोन अ फ़्रेन्ड वा ऑडियन्स पोल , सांगा चालले असते का? बायको म्हणाली उत्तर देणे आहे आता क्रमप्राप्त तुम्हा " अग सोड प्रिये बघ वाजला भोंगा ... समय समाप्त हुवा " वैभव!!!
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Manee
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| Friday, December 09, 2005 - 4:24 am: |
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.. .. .. ..
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Milya
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| Friday, December 09, 2005 - 4:55 am: |
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वैभव : एकदम उम्मीद से दुगना रे....
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Jo_s
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| Friday, December 09, 2005 - 5:30 am: |
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वैभव हे काय चालल हे आधिच्या कविता पचायच्या सॉरी वाचायच्या आत पुढच्या टाकतोस दमछाक होते वाचून आणि हासून. .
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वैभव अद्वितीय, अद्भुत माफ़ कर तुझेच शब्द उचलतोय, पण खर सांगतो दुसरे शब्दच नाहित.
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Ninavi
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| Friday, December 09, 2005 - 11:22 am: |
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वैभव, ही स्टील च्या ग्लासची किमया की काय? तुझ्या हनुमॅनला बघायलाच पाहिजे एकदा! 
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Pama
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| Friday, December 09, 2005 - 12:01 pm: |
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वैभव.. जाम मस्त!! मला वाटत तुझी बायको बरोबरच म्हणत असणार... तुझा चिरंजीव तुझ्या वळणावर जातोय.. लवकरच भेट होईल.
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vaObavaaÊ jabaáyaa ro... idla KuYa huvaa
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Amrutabh
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| Saturday, December 10, 2005 - 12:14 am: |
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वैभव....एकदम सही... हसुन हसुन पोटात दुख़ायला लागल...... waiting for more...
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Amrutabh
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| Saturday, December 10, 2005 - 12:14 am: |
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वैभव....एकदम सही... हसुन हसुन पोटात दुख़ायला लागल...... waiting for more...
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