Lopamudraa
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| Wednesday, November 08, 2006 - 7:13 am: |
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पापणीचा शुष्क काठ.. खोल खोल कुठेतरी आत.. मन कुरतडत जातो.. वादळात ढग.. भरभर वहात,.. जस बरसणं विसरत जातो..!!!
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Meenu
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| Wednesday, November 08, 2006 - 7:21 am: |
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तुला विसरुन खुप दिवस झाले, आज वाटलं परत एकदा 'विसरलेय मी' हे मनात ठसवलं
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Meenu
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| Wednesday, November 08, 2006 - 7:23 am: |
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पापणी राहते कोरडी नजरेतही वेदना नाही उमटत अशावेळी जिवंत आहोत की मेलो आपण हेही नाही कळत
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Devdattag
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| Wednesday, November 08, 2006 - 7:30 am: |
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असं आवरायला घेतलं की फार फार वेळ लागतो पसारातल्या प्रत्येक वस्तूचा आठवणींशी मेळ लागतो हे आता रोजचच झालय पसारा घालणं आणि आवरणं माझं मन तसं शांत आहे पण ते रमवायला हा खेळ लागतो
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Meenu
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| Wednesday, November 08, 2006 - 7:32 am: |
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वा देवा क्या बात है .. मी कल्टी उद्या भेटुच
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Lopamudraa
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| Wednesday, November 08, 2006 - 7:34 am: |
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मस्त देवा.. वा क्या बात है..!!!
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Pujarins
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| Wednesday, November 08, 2006 - 12:11 pm: |
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सखीला लागले लागीर लागीर जेजूरीच्या खंडोबाला गुलाल अबीर
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Daad
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| Wednesday, November 08, 2006 - 11:04 pm: |
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देवदत्त, खरच छान!! बसल्या बसल्या भरकटते आजकाल आठवांच्या निबिड अरण्यात.... अजुनही कळत नाहीये... शोधायचय तुला की हरवायचय मला -- शलाका
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Meenu
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| Wednesday, November 08, 2006 - 11:11 pm: |
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खेळ रोजचाच तुझी वाट पहायचा आणि हरणंही रोजचच .. तसा जीव एकदाच जायचा पण मरणं हे रोजचच ..
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Daad
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| Wednesday, November 08, 2006 - 11:15 pm: |
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कणाकणाने, क्षणाक्षणाने तुला माझ्यातुन काढायचं बर! सगळी जाणीव संपली, आता माझं काय करायचं?... -- शलाका
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Meenu
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| Wednesday, November 08, 2006 - 11:17 pm: |
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घोंघावणारा वारा झरणार्या धारा त्यात आणि भर म्हणुन तुझ्या आठवांचा मारा .. वा शलाका मस्त ..
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Meenu
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| Wednesday, November 08, 2006 - 11:19 pm: |
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तुला वाटलं असेल सुटेल प्रश्न, जाणीवा संपल्यावर तरी .. पण बघ प्रश्न उरलाच ना ..? स्वरुप तेवढं बदललं
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Daad
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| Thursday, November 09, 2006 - 12:22 am: |
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मीनु, मस्तच गं कविता, चिठ्ठ्या, की चेन, बबुष्का... सगळ सगळ, परत केलयस जपलं होतस म्हणायचं तर ते आणि माझं मन रे?... ते कुठय? -- शलाका
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Smi_dod
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| Thursday, November 09, 2006 - 12:35 am: |
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दाद.... ... काय लिहु.....
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Daad
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| Thursday, November 09, 2006 - 1:27 am: |
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अजुन काय राह्यलय? तुझ्या आठवणी!! मीच आणून देईन, जमतील तशा... (जरा जपून न्यायला हव्यात, रे!) -- शलाका
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Daad
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| Thursday, November 09, 2006 - 1:36 am: |
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आता जरा वेगळं बोलू.... बावरून संध्या-राधा आरक्त जाहली गाली कवळोनी सावळ्या बाहू काळोख वेढा घाली -- शलाका
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Jayavi
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| Thursday, November 09, 2006 - 3:05 am: |
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आई गं..... शलाका काय लिहिते आहेस गं....... amazing! लोपा, मीनू, देवा...... सगळे एकसे बढकर एक!
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मस्तच.. शलाका.. मीनु चालु द्या...
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Pujarins
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| Thursday, November 09, 2006 - 11:51 am: |
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शलाका, मीनु एकदम सही.. कातरवेळी राधा घूसली अनयाच्या चिंब मिठीत मूरळीची व्याकूळ धून खोल तिच्या मनात
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Dineshvs
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| Thursday, November 09, 2006 - 12:03 pm: |
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देवा, हा खेळ मी रोजच खेळतो.
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