Jo_s
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| Sunday, April 02, 2006 - 4:20 am: |
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संकेत मिलनाचा नित्य स्वप्नात देशी न येई नशा ती कधीही तरी करीसी धुंद आजन्म मजला जशी दिसता प्रत्यक्ष तू सुंदरी
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Kshipra
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| Monday, April 03, 2006 - 2:11 am: |
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अवेळी नदीच्या किनारी उभी मी इशारे कुणाचे उगा बावरी मी घुमे रोमरोमातुनी तीच वेणू नवे मी हृदय सांग कोठून आणू?
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कशाला हवी बासरी आणि कशाला नवे गाणे कधि कधि सुरेल गातात वहित राहिलेली पिंपळपाने
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Jayavi
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| Monday, April 03, 2006 - 11:11 am: |
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क्षिप्रा.......क्या बात है ! अरे सगळेच काय सुरेख लिहिताहेत........मस्त झुळुका येताहेत !
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Devdattag
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| Tuesday, April 04, 2006 - 12:37 am: |
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अधीर स्पर्श सहाचे दान मन अधांतरी पिंपळपान देह लेख़णी देहच पान मनी चिरंतन अभंग गान एक सुरेल भेदक तान शुन्यात घुमते थरारे रान
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Puru
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| Tuesday, April 04, 2006 - 4:15 am: |
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डोळ्यातलं चांदणं गालांवर फाकलय, आत्ताच एक वेडं वादळ थोडंसं शमलंय.
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Meenu
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| Wednesday, April 05, 2006 - 1:40 am: |
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गावानी माझ्या रोषणाई मिरवली... दिव्यांच्या झगमगाटात रात्र चांदणी हरवली...
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Meenu
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| Wednesday, April 05, 2006 - 1:43 am: |
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तुझा माग काढता काढता कीती दूर मी येऊन पोचले..... परतीच्या वाटेवरले सारे हे काटे तुझ्यामागे येताना कसे नाही बोचले?
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कसे बोचतील सखे काटे तुला पायातले काटे लागु नये तुला माझे हृदय हे अंथरले
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वा मस्तच चालू आहे की इथं. क्षिप्रा वा... देवदत्त मस्तच रे. मीनू अगदी अगदी खरं. मयूर उत्तर पण तितकंच
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सन्मे,नुसत्या प्रतिक्रिया नाही चालणार. चल सामिल हो बघु आमच्यात
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Devdattag
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| Wednesday, April 05, 2006 - 5:44 am: |
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झाली नव्हती कधीही काट्यांनी मज वेदना गेलास तु रे ज्या क्षणी गोठल्या संवेदना
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Giriraj
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| Wednesday, April 05, 2006 - 10:33 am: |
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सारी पूनव अंधारली आजही न चंद्र यावा, उगविण्या मी सूड त्याचा वेदनेचा भोग घ्यावा.
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Shyamli
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| Wednesday, April 05, 2006 - 2:33 pm: |
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अंधारलेल्या पुनवेच सुटेल ग्रहण थोडीशी वाट बघ.... फिटेल डोळ्याच पारणं श्यामली!!!
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Spuranik
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| Wednesday, April 05, 2006 - 10:19 pm: |
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पुनवेची रात्र वेडी पुन्हा पुन्हा येईलही परी सख्या चंद्रालाही तुझ्या विना नूर नाही
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Devdattag
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| Thursday, April 06, 2006 - 1:15 am: |
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सखये तुझा नूर आगळा मी तयातच नाहतो चांदव्याची बात कशाला तोही तुलाच पाहतो
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Soultrip
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| Thursday, April 06, 2006 - 2:05 am: |
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कम्पूशाही ही मला छळे कोण मित्र, कोण वैरी उत्तर कधी न कळे!
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Soultrip
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| Thursday, April 06, 2006 - 2:07 am: |
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अवती-भवती अथान्ग पाणी मी मात्र तहानलेला, अवती-भवती अथान्ग गर्दी मी मात्र माझा एकला!
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Dilippwr
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| Thursday, April 06, 2006 - 2:08 am: |
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काठा वर सावळी सावली तीत कवडशान्चे ज़ुबके राना पानातुन अजुनि कवळे कवळे दव ठिबके
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Soultrip
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| Thursday, April 06, 2006 - 4:17 am: |
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घसरणार्या वस्त्रातुन विकृती खुश्शाल डोकावते चकाकत्या फ़्लाशेस पुढे संस्कृती बापडी शरमते! Guys: How to write vikrutee & sanskritee in devnagari? I can edit accordingly.
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विकृती, संस्कृती.. . असे लिही.. vikRutee and sa.nskRutee . घसरणार्या असे लिही ghasaraNaaRyaa .. .. ..
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Soultrip
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| Thursday, April 06, 2006 - 4:35 am: |
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Thanks Lopamudraa. I was trying all combinations in vain!
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माझ्या अयुष्याचा असा झाला पसारा.. मोडुन पडला जीवनाचा खेळ सारा.. नाही झुळुक सुगंधी, नाही नाचरा मोर पिसारा... फ़क्त आहे विस्कटणारा वारा...
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Soultrip
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| Thursday, April 06, 2006 - 4:50 am: |
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विस्कटणारा वारा आणतो मृगाचे जीवनदायी तुषार करपलेल्या धरणीला पुन्हा येते नवी उभार !
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Soultrip
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| Thursday, April 06, 2006 - 5:02 am: |
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तीच ती रम्पा अन तेच ते गडावरचे मावळे एकमेकाची पाठ खाजवत टोचे मारती डोमकावळे!
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