Kshipra
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| Wednesday, March 01, 2006 - 12:24 am: |
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ओळख अपुली युगायुगांची मनास कळते हेच निरंतर देह कसा हा पार करावा सलत राहते मधले अंतर
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असुदे अंतर देहामधले जुळता मने ते गौण ठरले नकळत मन तुझ्या मना भेटले मला न कळले तुला न कळले
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वा क्षिप्रा आवडले, छान जमले आहे
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Sarang23
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| Wednesday, March 01, 2006 - 1:33 am: |
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क्षिप्रा सहिच एकदम. झुळुकची सुरुवात छान. पण बाकी मंडळी कुठे? श्यामली ताई तुम्ही येऊ द्या आता उत्तर.
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Jaaaswand
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| Wednesday, March 01, 2006 - 2:03 am: |
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नमस्कार मित्रांनो.... डायरीतल्या काही पानांवर अजूनही शब्द उमटत नाहीत कोणास ठाऊक.. ओल्या शाईला का ओली पाने आवडत नाहीत जास्वन्द...
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Jaaaswand
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| Wednesday, March 01, 2006 - 2:08 am: |
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तिच्या माझ्या भेटी उरल्या फ़क्त गावातल्या आमराईत कधी राईत दिसतो मोहोर कधी फ़ुलतो आमच्या शाईत जास्वन्द...
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Jo_s
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| Wednesday, March 01, 2006 - 2:14 am: |
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मना मना तील मिटता अंतर प्रश्ण कशास देहाचा तू अन मी हे शब्दही गौणच खेळ हा सारा अद्वैताचा
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Shyamli
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| Wednesday, March 01, 2006 - 3:14 am: |
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क्षिप्रा,मयुर,सुधिर.... अजुन येऊ दे...मस्तय एकदम प्रीतीच्याही पुढची कथा ही कुठले देह नी कसले अंतर नसेन मीही नसशिल तुही असेल प्रीती तरी चिरतन श्यामली!!!
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Jo_s
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| Wednesday, March 01, 2006 - 3:58 am: |
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चिरंतन ही कथा लिहीणाराही तोच आहे पात्रांमधे त्यातल्या खेळणाराही तोच आणि खेळवणाराही तोच आहे
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Shyamli
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| Wednesday, March 01, 2006 - 4:29 am: |
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राधेच्या मनि वसे श्रीहरी अनय बीचारा काय करी वेडीच राधा होय बावरी वाजताच रे ही मुरली श्यामली!!!
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Sarang23
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| Wednesday, March 01, 2006 - 4:39 am: |
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shyamali khas, sahich yeu de ajun.
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Devdattag
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| Wednesday, March 01, 2006 - 5:09 am: |
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प्रेम चिरंतन्| जागवी मुरलि| कैवल्य समान| अधिष्ठान|| व्रुंदावनी हरी| करी संमोहन| जाहलि राधिका| एकरूप|| म्हणे देवदत्त| भक्ती ती निष्काम असे सर्वभूतां| वंदनीय||
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Meenu
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| Wednesday, March 01, 2006 - 6:32 am: |
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अनय न होई उगीच कष्टी जाणे सृष्टी हरीची माया वृथा न मानी रोष हरीचा राधेलाही न देई दोष अनय जाणितो..................... बाणाची मदनाच्या बाधा कृष्णही जखमी, जखमी राधा हरीही न टिकला ज्याच्यापुढती टिकेल तेथे कसली राधा..............
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Shyamli
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| Wednesday, March 01, 2006 - 6:42 am: |
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वा मीनु सहीये एकदम
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Meenu
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| Wednesday, March 01, 2006 - 7:25 am: |
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धन्यवाद श्यामली, अगं मला नेहमी वाटत....की अनय बिचाराच असेल कशावरुन... खरं खोटं माहित नाही पण वाचनात कधी कुठे अनय चिडल्याचा उल्लेख आला नाही म्हणुन जे वाटलं ते मांडल ईथे..............
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Jaaaswand
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| Wednesday, March 01, 2006 - 10:28 am: |
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तुझा एक लाजरा कटाक्ष माझी झाकली मूठ आहे मग माझ्या प्रत्येक रातीत चांदण्यांचीच लूट आहे जास्वन्द...
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तोच धुंद वारा भरुन आलेला पाउस नकळत बघ डोळे भरलेत आसवांना ही भिजायची हौस
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Jaaaswand
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| Wednesday, March 01, 2006 - 12:40 pm: |
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मस्त रे निल्या... तिच्या बटेवर वेडावतो जो त्या धुंद वार्यातला कुंद तारा एक थेंब आता दर्या होईल सारा पाहूनी तिच्या खळीचा किनारा जास्वन्द...
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Shyamli
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| Wednesday, March 01, 2006 - 12:42 pm: |
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जास्वदा, निल्या सहीये.... नको आसवे नकोच पाऊस नको आज हे भरुन येणे आकाश माझे स्वच्छ मोकळे इन्द्रधनुष्यी रंग फुले श्यामली!!!
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Devdattag
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| Thursday, March 02, 2006 - 7:04 am: |
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भरलेले आभाळ सांगे एक नवल कहाणी इन्द्रधनुष्याला फुलवतात ऊनपावसाची गाणी
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तुझ्या माझ्या भेटीचे प्रत्येक क्षण..... साठलेले आभाळही होते झुकलेले मेघही होते दाटलेले, पाउस नव्हता मात्र, होते फ़क्त भिजलेले दोघे
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Devdattag
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| Thursday, March 02, 2006 - 7:33 am: |
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ये बात.. बढिया है
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भेटीत आपल्या गजरा,कुंतल नि वारा काजळ, नयन आणि आसमंत सारा, थरथरणारे अधर वार्यावरचा पदर सारेच होते फ़ितुर तुझ्या स्पर्शाला आतुर!!!
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Devdattag
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| Thursday, March 02, 2006 - 7:43 am: |
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त्यांचं ते न भिजता भिजणं आता पावसालाही भावलय त्याच्याही मिठीत त्याने ह्या धरतीला सामावलय
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Jaaaswand
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| Thursday, March 02, 2006 - 7:52 am: |
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भिजवीन मी तुला इतके कि जळून जाईल हा पाऊस ओल्या मिठीतून माझ्या मात्र कोरड्याने नको जाऊस जास्वन्द...
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