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| Archive through March 26, 2006 | 25 | 03-26-06 12:25 am |
स्वच्छंदी जीवन माझे त्यात रंग भरलेस तू... पाहिले नव्हते स्वप्न ज्याचे कधी अनुभवयास दिधलेस तू....
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Krishnag
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| Sunday, March 26, 2006 - 11:32 pm: |
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वेदना, अश्रूच वाहतायेत तर माझी एक पूर्वी टाकलेली चारोळी पुन्हा टाकायची इच्छा झाली!! कसं लपवावं वेदनेला जेंव्हा आपलेच परके होतात आपलेच डोळे आपलेच अश्रू आपलीच चुगली करतात
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Ajjuka
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| Monday, March 27, 2006 - 1:37 am: |
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लपवण्याचा अट्टाहास तुझी जुनीच सवय. गुदमरल्या ओठांची माझी चुकलेली लय
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Krishnag
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| Monday, March 27, 2006 - 1:53 am: |
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ग्रीष्माचा अंगार झेलण्या येई बहर वसंताचा विरही जळता गारवा तुझ्या स्निग्ध आठवांचा
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Jo_s
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| Monday, March 27, 2006 - 2:05 am: |
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माझ्या एका कवितेतल्या चार ओळी लपवता लपेना हृदयीचा घाव चेहेरा हा दाखवतो मनाचा ठाव उगाच स्वत्:ला अस फसवू नको तू आज इतक हसू नको
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Dha
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| Monday, March 27, 2006 - 3:24 pm: |
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अश्रु हाच माणसाचा सर्वात जवळचा मित्र असतो मित्र शब्दाच्या अर्थाला खर्या अर्थाने जागतो.
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Dha
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| Monday, March 27, 2006 - 3:36 pm: |
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अश्रु हाच माणसाचा सर्वात जवळ्चा मित्र असतो, मित्र शब्दाच्या अर्थाला तो खर्या अर्थाने जागतो. आनन्दाच्या काही क्षणी काहीजण गालबोट लावतात अडचणीच्या प्रसन्गी जवळचे देखिल पाठ फ़िरवतात. अशावेळी अश्रु मात्र आपल्याकडे धाव घेतात, आपल्या आनन्दात आणि दु:खात अश्रुच सहभागी होतात. अश्रु हे आपले खरचच जवळ्चे मित्र असतात, मित्रत्वाच्या नात्याला किति नेमकेपणने जाणतात
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किशोर, सुधिर,अज़्जुका छान वसुधा, सुन्दर कविता पण कवितान्च्या विभागात टाक ना. ही बाग लहान आहे ना इथे चारोळ्यान्ची झाडे जास्त शोभतात.
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स्वप्नान्चा सोस कधि पुरा झाला नाही स्वप्ने पुरि झाली नाहीत पण अफसोस झाला नाही
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स्वप्नांच्या प्रवाहाला नाही किनारा, पहा या पामराला नाही उतारा.. जिर्ण झाली व्यथा तरी, वेदना भोगली रोज नव्याने..
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जोडुनी मनाचे बंध.. ओंजळीत भरले होते आकाशातील तारे.. खळकन निखळले सारे.. अवघ्या क्षणात कारे..
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लपवुन सारी वेदना, हसया चेहर्याने मी रोज सामोरी जाते जेव्हा.. सकाळ झाली तरी, सुर्य माझा उगवला नसतो तेव्हा!!!
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कधी कधी नकोशी होते रात्र जेव्हा, चन्द्राला लपवुन टाकते मी तेव्हा.. वेदना चांद्ण्यांनी झाकुन ठेवते, रिकाम्या आभाळाकडे पाहुन मनभरुन हसते..!!!
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माझ्या रित्या अंगणासाठी, निशेच्या शशीकडुन चांदण्यांना मागुन घेते.. परसात माझ्या सार्या त्या पेरुन टाकते, उगवलेल्या चांदणफ़ुलांनी मग माझी वेदना मी सजवुन घेते..!!!
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वैशालि, सकाळी चहाऐवजी वादळ प्यायलीस का? सुन्दर कविता रात्र नकोशी झाली की स्वप्नाना आठव अशाच कविता लिहुन मायबोलिवर पाठव
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स्वप्नान्च्या गावाला जायच होत पण रिझर्वेशनला केवढी लाईन.... शेवटी झोपेतच इमेल केला पुढच्या वर्षी येईन
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thank you, heartwork!!!! aani mast reservation, and e-mail...
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Aavli
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| Tuesday, March 28, 2006 - 9:01 am: |
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swapnaachya gaavi jata na amhala hi gheoon jaa, gulabi swapanaateel maja sarwanach deoon jaa
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Chinnu
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| Tuesday, March 28, 2006 - 4:12 pm: |
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लोपा.. खुपच छान ग! HW, Nice ones!
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