Jo_s
| |
| Friday, January 19, 2007 - 4:56 am: |
|
|
दिनेश मस्तच, तुम्ही नेमक शिकलायत तरी काय? तुम्हाला अवगत नाही असा विषयच नाही. सुंदर कथा.
|
Kiru
| |
| Friday, January 19, 2007 - 5:14 am: |
|
|
दिनेश.. अप्रतिम... चिन्नूचा निरागसपणा खूप छान उतरलाय.. पोरगं अगदी समोर उभं राहिल रे.. सुंदर. शेवट चटका लावणारा..
|
Bhagya
| |
| Friday, January 19, 2007 - 5:16 am: |
|
|
मला सगळ्यात जास्त छोट्या चिनूचे निरागस पात्र आवडले. फ़ारच सुंदर रंगवले आहे.
|
Pha
| |
| Friday, January 19, 2007 - 5:31 am: |
|
|
वा! चक्क चित्रकारांच्या अनुभवांवर बेतलेली कथा! आजच लोकसत्तेच्या 'लोकमुद्रा' पुरवणीत 'रविमुकुल' यांचा याच संदर्भातला लेख वाचायला मिळाला. त्यातले अनुभव आणि या कथेतील चित्रकाराचे अनुभव सेम वास्तव दर्शवतात. ( BTW , "ते कलाकार" 'रविमुकुल' तर नाहीत ना? )
|
Dineshvs
| |
| Friday, January 19, 2007 - 6:06 am: |
|
|
Pha रविमुकुलांचे अनुभव तर याहुन दाहक आहेत, जरा फ़डकं मारुन घे रे, हि चौकट वाचली ना ?
|
Jayavi
| |
| Friday, January 19, 2007 - 8:17 am: |
|
|
गुरुजी.......... माफ़ीऽऽऽऽ चूक झाली आमची.....
|
Prajaktad
| |
| Friday, January 19, 2007 - 5:34 pm: |
|
|
दिनेशदा! वेगळि खास तुमच्या शैलितली कथा.. चिनु खुप भावला
|
Zakasrao
| |
| Friday, January 19, 2007 - 11:20 pm: |
|
|
दिनेशदा, तुमच लेखन नेहमीच छान असत. मी कालच जुने गुलमोहर archieves वाचुन संम्पवले. सर्वच तुम्ही लिहिलेल आवडल. असच लिहित जा, माझ्यासारख्या वाचकाना मेजवानी मिळत राहिल.
|
R_joshi
| |
| Saturday, January 20, 2007 - 5:04 am: |
|
|
दिनेशजी अप्रतिम लिखाण आहे तुमचे. दाद द्यायला शब्दच नाहित. भावनांचे शब्द रेखाटन खरच फार छान करता.
|
Asmaani
| |
| Saturday, January 20, 2007 - 6:39 am: |
|
|
दिनेशदा, सुंदर कथा...सुन्न करणारा शेवट!
|
दिनेश मस्तच झालीय हं कथा.
|