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Ruchita
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| Friday, April 21, 2006 - 5:08 am: |
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वैभव...मस्तच अरे शब्दच सुचत नाहियेत लिहायला, आत्ता औफ़्फ़िस मध्ये बसुनच वाचतेय, (तिसर्यान्दा), आणि एकटीच हसतेय खुदुखुदु.. थोडावेळ विसरुनच गेले माज़्या कामाचे टेन्शन.. छानच लिहितोस रे..
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Dineshvs
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| Friday, April 21, 2006 - 12:26 pm: |
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वैभव, हे लिहिताना जरा घाई झाली का ? यापेक्षा छान लिहिता आले असते.
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Jayavi
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| Saturday, April 22, 2006 - 7:11 am: |
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वैभवा, धन्य आहेस रे तू ! हसून हसून पुरेवाट नुसती. पद्यातून आता गद्यावर पण चढाई का रे ?
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वैभाव एकदम छान. तुझी ही अखंड टकळी कशाचाही खंड न पडता सदैव चालु राहु दे...
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Milya
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| Sunday, April 23, 2006 - 4:18 am: |
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वैभवा सहीच रे. गद्य पण गाजवु लागलास का तू आता? आणि एक्दम mods शि पंगा कार रे काय झाले अचानक... बाकी लिहिले जबरी आहेस
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Pha
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| Wednesday, April 26, 2006 - 8:33 am: |
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सहीच रे वैभव..
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Rajkumar
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| Thursday, April 27, 2006 - 12:33 am: |
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लय भारी रे वैभवा..
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