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  | Archive through June 21, 2006 | 20 | 06-21-06 10:57 am |
  | Archive through June 22, 2006 | 20 | 06-22-06 11:52 am |
  | Archive through June 23, 2006 | 20 | 06-23-06 7:53 am |
Chinnu
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| Friday, June 23, 2006 - 8:25 am: |
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देवा मस्त आहे कविता. मनाची आर्तता छान मांडली आहेस. झाडा परंपरा एकदम झक्कास. तुम्ही छान कविता खुलवुन सांगितलीत. मस्त! अपर्णा नितांतसुंदर कविता. वैभवच्या रसग्रहणापेक्षा निनावी तुझं रसग्रहण मला अलवार वाटलं. cbdg! बापु, कवीची मुलाखत छान वाटली वाचुन. धृवा पहिली खुपच छान आहे. अनाद्य शब्द आवडला. तुमच्या कवितेत व ह्या शब्दाचा प्रयोग जरा खटकला. त्यामुळे फ़ारसे काही बिघडले नाहिये, पण ती ओळ मला तुटक वाटते. आणि दुसरी माझ्या बालमतीला काय कळली नाही रे! मीनु तुझे मी नक्किच control करेन मला फ़क्त पाउस पडायला नको, हे खुप आवडले. तुझे फुलपाखरु पण मस्त. ह्या पानावरच्य कवितेतील अळवाच्या पानाकडुन शिकायचाय कोरडेपणा- वाह. खुपच छान उपमा देतेस. अगदी साध्या पण सुंदर! अभय तुमचे फुल छाने. खुप simple वाटली कविता. अमेया तुला झाडाच्या कवितेचा अभिप्रेत असलेला अर्थ फार आवडला. तुझ रसग्रहण फार छान असतं. खुप positiveness असतो त्यात. सुमती, स्वरूप छान. वैभव अदलाबदल आणि कवितेच्या भेटीची वाट पाहण दोनही आवडल्यात.
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Meenu
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| Friday, June 23, 2006 - 10:09 am: |
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मीनु तुझे मी नक्किच control करेन >>> चिनु धन्यवाद रे पण control करेन काय आहे ? मला नाही कळलं रे
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Ninavi
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| Friday, June 23, 2006 - 10:18 am: |
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मीनू, तुला चिन्नू ' रे' नाहीये हे पण कळलेलं दिसत नाही. 
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Sumati साजणा गेय आहे, सोपी, समर्पक शब्द-योजना आहे, त्यामुळे लक्षांत रहाण्याजोगे गीत झाले आहे. कोणत्याही संगीत दिग्दर्शकाला भुरळ पडावी. -बापू.
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Vaibhu
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| Saturday, June 24, 2006 - 4:38 am: |
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hi sumati, u wright just fabulous. hands up for u. best of luck.
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Naadamay
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| Saturday, June 24, 2006 - 6:19 am: |
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निःशब्द भावनांना डोळ्यांनी दिली वाट निघून अश्रू गेले मला न सांगताच लगाम नाही माझा माझ्याच डोळ्यांवरी त्यांनीच आधी चुगली केली तुझ्यापाशी कौल तुझा त्यांनी साठविला स्वतकडे मी मात्र शंकित हात करावा का पुढे प्रेमच त्यांची भाषा ती त्यांनीच जाणली मिटून बंद स्वप्ने जपली अंतर्मनी सत्य मात्र नियती स्वप्ने विरून गेली डोळ्यांनीच पहिली ही स्वीकारली स्थिती मन सावरुनी हे सावरतच नाही डोळेच झाले आधार मार्ग दाखवुनी
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Dineshvs
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| Saturday, June 24, 2006 - 11:57 am: |
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सुमति, मला क्षिप्रा नेहमी सांगत असते तुमच्याबद्दल. हि कविता खुपच छान आहे. असे एखाद्या चरणावरुन पुढे जाणे, मी कधीच बघितले नव्हते आधी. आणि गेय तर आहेच आहे.
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Mruda
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| Sunday, June 25, 2006 - 2:34 am: |
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पाहीलं आहे कधी हिरव्या पानांना गळण्याची वाट बघतांना...? ऐन भरात आयुष्याच्या संपण्याची ओढ लागतांना...? मी पाहिलं आहे सारं असं अघटीत घडतांना.... वसंत वारे येऊन सारी वेली-फ़ुलं जाळतांना.... मृ
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Jo_s
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| Sunday, June 25, 2006 - 4:43 am: |
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मृदा छान आहे कविता कली युगात हे सारं असच अघटीत घडणार चैतन्य आता गोठ्णार आणि बर्फ पेट घेणार माणसं बोलणार एक वेगळच अगदी वागणार कली युगात हे सारं असच अघटीत घडणार
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मीनू, निनावी, श्यामली, सगळ्यांना thanks! कविता तर सार्याच सुंदर आहेत. मीनू, 'खोली' ते 'अजूनही अर्थ आहे' सगळ्याच एका वेगळ्या मूड मधल्या, खूप छान आहेत.
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Antya
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| Sunday, June 25, 2006 - 5:50 am: |
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मी मात्र शंकित हात करावा का पुढे >>.. nadamay chan aahe kavitaa! हिरव्या पानांना गळण्याची वाट बघतांना...? ऐन भरात आयुष्याच्या संपण्याची ओढ लागतांना>>>> choti aani apratim kavitaa... mrudaa.. ,sudhir che uttarahii chaan aahe.. antyaa hya kavitelaa mi aadhi prateekriyaa diliye, tu punhaa taakali vaatate teechkavitaa...!!!
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Mruda
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| Sunday, June 25, 2006 - 11:26 pm: |
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लोपा, सुधीर धन्स. . तुमच्याही कविता मला खूप आवडतात....
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मृदा खरंच सुरेख आहे कविता... खूपच आवडली. सुधीरच्या ओळीही छान आहेत.
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Meenu
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| Monday, June 26, 2006 - 12:14 am: |
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मृ मस्त लिहीलं आहेस ग ...
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Mruda
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| Monday, June 26, 2006 - 1:12 am: |
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अमेय... मीनु.... दोघांनाही धन्स..... 
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Zaad
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| Monday, June 26, 2006 - 1:26 am: |
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अंत्या, भारीच लिहीली आहेस कविता! मृदा, केवळ अप्रतिम! तुझी कविता वाचून महानोरांच्या या ओळी आठवल्या: मन ऐसे डोहाच्या गडद गर्द पाण्यापरी देहावर चरणार्या गर्भाला बळ भारी मन माझे अवसेचे विझलेल्या नवसाचे..
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Jo_s
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| Monday, June 26, 2006 - 2:00 am: |
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लोपा, अमेय धन्यवाद सुधीर
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मीनु, देव, नीनावी, मृदा खुपच छान... अप्रतीम
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Mruda
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| Monday, June 26, 2006 - 3:20 am: |
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झाड धन्स.... ह्या महानोरांच्या ओळींनी काटा येतो ना अंगावर... specially पाऊस भरुन येतो आणि पडत नाही तेंव्हा जर उदास वाटलं तर हमखास अशी अवस्था होते... ते वातावरण mood intesify करतं असं वाटत मला... जो असेल तो mood
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Manasi
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| Monday, June 26, 2006 - 4:30 am: |
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मृदा अप्रतिम कविता आहे. फारच सुन्दर कल्पना. नादमय छान.
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Mruda छान कविता. मला ह्या कवितेचा रोख गर्द कडे असावा असं वाटलं हाच अर्थ तुम्हाला अभिप्रेत होता का? -बापू
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Mruda, मला वाटून गेलं की कवितेची मधली दोन कडवी नसती तरी चाललं असतं. पहिल्या कडव्यात कल्पना सूचित होते. शेवटल्या कडव्यांतलं वसन्त हे तरुण्याचे प्रतीक आणि जळून जाणार्या वेली-फुलांची प्रतिमा कवितेचा अर्थ ठसठशीत करेल. -बापू.
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Manasi
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| Monday, June 26, 2006 - 8:14 am: |
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मला असे वाटले कि 'मी पाहिले आहे' हे कडवे नसले तरि चालेल
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