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हे म्हन्जे लोका सांगे ब्रह्म.. असंच झालं. >>>> म्हणजे मी लोकाना ब्रम्हज्ञान सांगतोय की काय?
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नाही, तू नुसताच कोरडा पाषाण आहेस.
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>> म्हणजे मी लोकाना ब्रम्हज्ञान सांगतोय की काय? अय्या तुम्ही पण? स्वाती
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इथे स्तोत्रावर चर्चा चालू आहे की कवी ग्रेस यांच्या कवितेवर ?
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ही माझी प्रीत निराळी संध्येचे शामल पाणी दु:खाच्या दंतकथेला डोहातून बुडवून आणी हाताने दान कराया पोकळीत भरला रंग तृष्णेचे तीर्थ उचलतो रतीरंगातील नि:संग शपथेवर मज आवडती गाईचे डोळे व्याकूळ घनगंभीर जलधीचेही असणार कुठेतरी मूळ आकाश भाकिते माझी नक्षत्र ओळ ही दंग देठास तोडतानाही रडले न फूलांचे अंग
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जीव राखता राखता तुला हाताशी घेईन झडझडीचा पाऊस डोळे भरून पाहीन तुझे सोडवीन केस त्यांचा बांधीन आंबाडा देहझडल्या हातांनी वर ठेवीन केवडा तुझे मेघमोर नेसू तुला असे नेसवीन अंग पडेल उघडे तिथे गवाक्ष बांधीन दूध पान्ह्यात वाहत्या तुझ्या बाळांच्या स्तनांना दृष्ट काढल्या वेळेचा मग घालीन उखाना तुझे रूप थकलेले उभे राहता दाराशी तुझा पदर धरून मागे येईन उपाशी मुक्या बाहुलीचा खेळ देवघरात मांडीन नथ डोळ्यांशी येताना निरांजनात तेवीन तुझ्या चिमण्यांची जेव्हा घरी मळभ येईल वळचणीचा पाऊस माझा सोयरा होईल भाळी शिशिराची फुले अंगी मोतियांचा जोग तुझ्या पापण्यांच्या काठी मला पहाटेची जाग नाही दु:खाचा आडोसा नको सुखाची चाहूल झाड वाढता वाढता त्याने होऊ नये फूल
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